कोयल की सुर और मौसम का मिजाज, तय करते थे महिने — जैसे सावन की बदरीया,🌧️🌧️🌧️ रिमझिम बारिश , त्योहारों का शुरुआत

बदलता गाँव
परिवार: माता-पिता और दो भाइयों का समूह ➡️

 

हम चर्चा कर रहे हैं बदलते गाँव की। लोगों का शहरों की ओर पलायन बढ़ रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता, गाँव को तेजी से विकास की ओर ले जा रही है। इस बदलाव में लोग आगे तो बढ़ रहे हैं, लेकिन पुरानी परंपराएँ धीरे-धीरे मिटती जा रही हैं। भारत की विविधता और अध्यात्मिक परंपराओं का यह देश, अब आधुनिकता की नकल कर तेजी से बदल रहा है।

 

गाँव की खुशबू और बदलता जमाना
गाँव की वह खुशबू, जो शहरों के डॉक्टर भी सराहते थे। छोटी-मोटी बीमारियों के इलाज के लिए डॉक्टर कहते थे, “बाबू, गाँव भाग जा।” गाँव की शुद्ध हवा दवा का काम करती थी। लेकिन अब बदलते समय में शुद्ध वातावरण प्रदूषित हो रहा है। निर्माण गतिविधियाँ, वायु प्रदूषण, और अपशिष्ट पदार्थों का निर्माण गाँवों को भी प्रभावित कर रहे हैं। शहरीकरण और बढ़ती आबादी परिवहन गतिविधियों में वृद्धि का कारण बन रहे हैं, जो प्रदूषण का मुख्य कारण है। इसका दुष्परिणाम गाँव के लोग भोग रहे हैं, जिससे बीमारियों की समस्या बढ़ रही है।

 

बदलते गाँव के दिन ➡️
बदलते गाँव और ग्रामीण भारत की बदलती जीवन शैली। चलिए, एक बार फिर बीते हुए कल को आज बनाते हैं। हर किसी के गाँव की यादें होती हैं – दोस्तों के साथ पगडंडियों पर दौड़ना, गर्मियों में तालाब में छलांग लगाना, त्योहारों पर कबड्डी खेलना, और अनगिनत यादें। पिछले कुछ दशकों में बहुत से बदलाव आए हैं, लेकिन गाँव की यादों से फिर से कनेक्शन बनाने का समय आ गया है।

 

आधुनिकता और गाँव ➡️
आधुनिकता के दौर में गाँव भी शहर बनते जा रहे हैं। धीरे-धीरे शहरी सुविधाएँ गाँवों तक पहुँच चुकी हैं – बिजली, पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएँ। ग्रामीण जीवन में सुधार हो रहा है और भौतिकवादी जीवनशैली अब ग्रामीण जीवन का हिस्सा बनती जा रही है।

 

खान-पान और किसानी ➡️
हमारे संदेश में बीते हुए जमाने की खुशबू है – संसाधनों का अभाव और नेचुरल जीवन शैली कितनी खुशहाल थी। गाँव में गेहूं को आटा बनाना, पत्थर की चक्की, लकड़ी की धनकुट्टी, तेल कोल्हू, और ढेबरी से जलता प्रकाश। लालटेनें मिट्टी के तेल से जलती थीं, जो उजाले का साधन थीं। नेचुरल टेक्नोलॉजी पर आधारित जीवन बहुत खुशहाल था।

 

खान-पान ➡️
आज खानपान का स्वाद गायब हो चुका है। गाँवों में चूल्हे की रोटी, देगची में पकी दाल, और ताजे सब्जियों का स्वाद अद्वितीय था। ओखली में कुटे हुए चावल, गन्ने के रस की रसखीर, गरम-गरम कोल्हू का गुड़, और सर्दियों में अलाव पर भूने शकरकंद और आलू का स्वाद अनूठा था। लेकिन अब ग्रामीण क्षेत्रों में चूल्हे की जगह गैस ने ले ली है। देगची की जगह प्रेशर कुकर आ चुका है, जो दाल की गुणवत्ता को कम कर रहा है।

 

गर्मियों में चने और जौ का सत्तू शरीर को ठंडक देने वाला उत्तम पेय था, लेकिन अब कोल्ड्रिंक्स ने उसकी जगह ले ली है। ग्रामीण भोजन शैली में मोटे अनाज का स्थान भी कम हो गया है। गाँव में खेतों की मेड़ों पर उगे झरबेरी के बेर और अन्य सब्जियों का स्थान भी बदल गया है।

 

तब और अब ➡️👉
कितना बदल गया है हमारा गाँव – उनका खानपान, रहन-सहन, और जीवन शैली। आज लोग सुख-सुविधाओं के आदी हो चुके हैं और टीवी, फ्रिज, एसी, गाड़ी, गीजर, बिजली जैसी सुविधाएँ जीवन का हिस्सा बन गई हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी यही स्थिति है।

 

मिट्टी के घड़े का उदाहरण लें – घड़े का पानी शीतल और मृदु होता है और फ्रिज के पानी की जरूरत नहीं होती। शहरी लोग भी अब घड़े की महत्ता समझने लगे हैं। मोबाइल क्रांति और इंटरनेट सुविधा के चलते गाँवों में भी लोगों के हाथों में पूरी दुनिया आ चुकी है।

 

प्राकृतिक जीवन शैली का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन भौतिकवादी युग में समय और स्थान की कमी प्राकृतिक जीवन शैली जीने में एक प्रमुख बाधा बन रही है। जनसंख्या वृद्धि और रोजगार की तलाश में लोगों को गाँव छोड़ना पड़ रहा है।

 

-अनूप कुमार सिंह

 

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *